गुरुवार, 14 नवंबर 2013

कौन कहे.......


तुमसे    अच्छा,   मुझसे  बेहतर, कौन यहाँ पर, कौन कहे,
मेरे इश्क़, तेरे हुस्न से  बढ़कर, क्या है कहीं ,अब  कौन कहे,

तेरे   जलवे,   तेरी   अदाएं,   तिरी   कमसिनी, रूप तेरा,
तेरे   नादां-क़ातिल   तेवर,   तुझसे    बचना,   कौन कहे,

था     तिरा   नाज़  से पैर  बढ़ाना, भारी  मेरी ग़ज़लों पर,
उफ़-तौबा,  ये  शोख़  तबस्सुम,    इन  पर नज़्में कौन कहे,

रुखसार  पे  ज़ुल्फ़ों  के  कुंडल, मैं वारी,   क़लम मेरी कुर्बां,
तू  पार बयानों  के सारे , अब तुझ  पर  कुछ भी कौन कहे,

तू   ही   शीरीं,   तू   ही सोहनी,  तू लैला-हीर रही मेरी,
तू जान के भी अनजान बने तो अब तुझसे  कुछ  कौन कहे,

महिवाल तेरा मैं जन्मों का, फ़रहाद  मैं  ही  बन आया था,
मजनूँ-रांझा   भी   मैं ही था, अब  और  ज़ियादा कौन कहे,

हर जनम तुझे बस खो बैठा, इस  जनम बना “संजीव” हूँ मैं,
इस   बार    भी  तुझको पाऊंगा,  या न पाऊंगा, कौन कहे.............संजीव मिश्रा

शनिवार, 9 नवंबर 2013

अभी तक न आये.....

पत्थर    की अहिल्या  सा जीवन बीता जाये,
पर सुख की साँसों के राम अभी तक न आये,

भाग्य बना   दुष्यंत, भुला  शा-कुंतल-जीवन,
मछुआरे मुंदरी   लिये   अभी  तक न आये,

है प्राप्त मनुज का देह, भाग्य; शापित सुर सा,
कोई   शापोद्धारक   मुनि  अभी तक न आये,

इस दुर्बल तन, रोगी मन  का वैध्य वही मेरा,
जाने   मेरा उपचार ,   अभी  तक न  आये,

“संजीव”    ह्रदय   की नाव   रही सूनी-सूनी,
कोई मृगनयनी, कुंतल-श्याम, अभी तक न आये..............संजीव मिश्रा

बुधवार, 6 नवंबर 2013

सारी मशक्कत ये



चला जब आज घर से मैं तो दोनों बेटियाँ रोयीं,
लिपट कर बस यही बोलीं कहीं पापा न तुम जाओ,

न अब तुमसे कभी हम कुरकुरे या टॉफी मांगेंगे,
नहीं चहिये हमें कुछ बस हमारे साथ रह जाओ,

मेरी  गुल्लक में पैसे हैं, मैं सारे आपको दुंगी,
अगर पैसों की ख़ातिर जा रहे हो आप, मत जाओ,

भरा दिल और नम आँखें लिये चुप  मैं चला आया,
यही कह आया उनकी माँ से के बच्चों को समझाओ,

मगर अब सोचता हूँ मैं के ये दस्तूर  कैसा है ,
सिरफ कुछ चन्द  पैसों के लिए घर छोड़ कर आओ,

के बस जिनके लिये जद्दोजहद, सारी मशक्कत ये,
उन्हीं का दिल दुखाकर, छोड़कर रोता उन्हें आओ,

बहुत तक़दीर वाले हैं जो हैं बच्चों के संग अपने,
दुआ करना मुक़द्दर न कभी “संजीव” सा पाओ.............

अब रात हो चली है......



वो   सो  गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है,



अपना है क्या, हैं हम तो, इक अनसुनी कहानी,

इक अनकहा सा क़िस्सा, इक मौज बिन रवानी,

इक फूल अधखिला सा, इक टूटा सिलसिला सा,

बचपन  यतीम का, या, इक विधवा की जवानी,



अब    ज़िन्दगी   ग़मों की बारात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



अब   तो  हयात है बस, क़ातिल  के हुक्म जैसी,

बिन बहर की  ग़ज़ल सी, बिन वज्न नज़्म जैसी,

हैं   आह पर   भी   पहरे,  फ़रियाद पे पाबन्दी,

मजलूम पे,   बेबस  पे,   जाबर के ज़ुल्म जैसी,



“संजीव”,   उलझनों   की   अफ़रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



वो   सो     गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी   सी  बात हो चली है.