शनिवार, 9 नवंबर 2013

अभी तक न आये.....

पत्थर    की अहिल्या  सा जीवन बीता जाये,
पर सुख की साँसों के राम अभी तक न आये,

भाग्य बना   दुष्यंत, भुला  शा-कुंतल-जीवन,
मछुआरे मुंदरी   लिये   अभी  तक न आये,

है प्राप्त मनुज का देह, भाग्य; शापित सुर सा,
कोई   शापोद्धारक   मुनि  अभी तक न आये,

इस दुर्बल तन, रोगी मन  का वैध्य वही मेरा,
जाने   मेरा उपचार ,   अभी  तक न  आये,

“संजीव”    ह्रदय   की नाव   रही सूनी-सूनी,
कोई मृगनयनी, कुंतल-श्याम, अभी तक न आये..............संजीव मिश्रा

बुधवार, 6 नवंबर 2013

सारी मशक्कत ये



चला जब आज घर से मैं तो दोनों बेटियाँ रोयीं,
लिपट कर बस यही बोलीं कहीं पापा न तुम जाओ,

न अब तुमसे कभी हम कुरकुरे या टॉफी मांगेंगे,
नहीं चहिये हमें कुछ बस हमारे साथ रह जाओ,

मेरी  गुल्लक में पैसे हैं, मैं सारे आपको दुंगी,
अगर पैसों की ख़ातिर जा रहे हो आप, मत जाओ,

भरा दिल और नम आँखें लिये चुप  मैं चला आया,
यही कह आया उनकी माँ से के बच्चों को समझाओ,

मगर अब सोचता हूँ मैं के ये दस्तूर  कैसा है ,
सिरफ कुछ चन्द  पैसों के लिए घर छोड़ कर आओ,

के बस जिनके लिये जद्दोजहद, सारी मशक्कत ये,
उन्हीं का दिल दुखाकर, छोड़कर रोता उन्हें आओ,

बहुत तक़दीर वाले हैं जो हैं बच्चों के संग अपने,
दुआ करना मुक़द्दर न कभी “संजीव” सा पाओ.............

अब रात हो चली है......



वो   सो  गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है,



अपना है क्या, हैं हम तो, इक अनसुनी कहानी,

इक अनकहा सा क़िस्सा, इक मौज बिन रवानी,

इक फूल अधखिला सा, इक टूटा सिलसिला सा,

बचपन  यतीम का, या, इक विधवा की जवानी,



अब    ज़िन्दगी   ग़मों की बारात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



अब   तो  हयात है बस, क़ातिल  के हुक्म जैसी,

बिन बहर की  ग़ज़ल सी, बिन वज्न नज़्म जैसी,

हैं   आह पर   भी   पहरे,  फ़रियाद पे पाबन्दी,

मजलूम पे,   बेबस  पे,   जाबर के ज़ुल्म जैसी,



“संजीव”,   उलझनों   की   अफ़रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी सी बात हो चली है........



वो   सो     गये हैं, शायद, अब रात हो चली है,

फ़िर ख़त्म    इक  अधूरी   सी  बात हो चली है.

सोमवार, 4 नवंबर 2013

तुम गीता हो.....

तुम श्रुति, स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.

तुम अमृत घट दुर्लभ-अलभ्य ,मैं सर्व-सुलभ नर साधारण,
तुम गायत्री का गान मैं बस इक ग्राम्य-गीत सा उच्चारण,
मैं माया-मोहित प्राणी सा  तुम भव निधि के लगते तारण,
मैं कृष्ण पक्ष का चन्द्र मात्र,  तुम हो सूरज उत्तर आयण ,

मैं क्यों न गीत तुम्हारे गाऊँ, प्रीत करूँ न किस कारण,
तुम ही मेरा अवलंबन हो तुम ही मेरी मन प्रीता हो...........

मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............

जाने कितने जन्मों जन्मों बस बाट  तुम्हारी जोही थी,
जानें कितने ही दिवस-निशा ये श्वास यूंही बस ढोही थी,
जब तुम्हें था पाया तभी मुझे ये जगती थोड़ी सोही थी,
जो तुमसे कभी न कह पाया वो बात यही बस तो ही थी,

कितने  दिन तेरे बिना कटे, नियति कितनी निर्मोही थी,
संजीवको इस  दुर्गम पथ में तुम ही तो एक सुभीता हो......

मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो.............

तुम श्रुति, स्मृति; तुम मेरे, तुम श्री सूक्त तुम गीता हो,
मैं राम नहीं बन सकता पर तुम बनी-बनायी सीता हो........संजीव मिश्रा