शनिवार, 2 नवंबर 2013

कभी ऎसी दीवाली आये.......



कभी ऐसी दीवाली आये.
बाहर मिटें अँधेरे,भीतर भी उजियारा छाये,
कभी ऐसी दीवाली आये........

कहीं अभाव या निर्धनता का लेश रहे ना बाक़ी,
सबकी प्यासी कामनाओं को, हाज़िर हो इक साक़ी,
कहीं किसी मुफ़लिस की बेटी न,  बिन ब्याही रह जाये ,
कभी ऐसी दीवाली आये......

मेरे देश से जरासंध और दु:शासन मिट जायें,
कभी-कहीं-कोई बालाएं न जबरन नोची जायें,
बेटी पैदा हो तो न फ़िर बाप का दिल घबराये,
कभी ऎसी दीवाली आये....

मैं भी रहूँ प्रसन्न , पड़ोसी भी आनन्द मनाये,
हर कोई अपनी मेहनत का समुचित प्रतिफल पाये,
तेरे घर होकर माँ लक्ष्मी , “संजीव” के घर भी आये,
कभी ऎसी दीवाली आये.......

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

सिर्फ़ कल सा लगता है....



उनका   चेहरा     कँवल     सा   लगता है,
इक      मुक़म्मल    ग़ज़ल  सा   लगता है,

उनके    बारे    में      सोचना    अब तो,
इक     ख़ुदाई     अमल   सा   लगता  है,

दुनिया   है    इक   सवाल     अन सुलझा,
उनका    दामन    ही,    हल  सा लगता है,

याद      में   उनकी     बहा   हर  आंसू,
मुझको गंगा   के      जल    सा लगता है,

ये फ़लक, ये हिमाला    भी,  चाहे टल  जाये,

प्यार    मेरा   अचल   सा      लगता   है,

उनकी      चाहत   में   दिल   हुआ मंदिर,
घर    मेरा     इक     महल  सा लगता है,

तुम    मेरे    उपनिषद    हो,    गीता  हो,
तुमसे    जीवन     सफ़ल    सा   लगता है,

है   ये   “संजीव”  तुम्हारा  ही कई जन्मों से,
तुमको  रिश्ता  ये क्यों, सिर्फ़ कल सा लगता है....

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

रहते हैं “संजीव” छिपे .........

भीतर भीतर जेठ दुपहरी बाहर मौसम सावन का,
तुम क्या जानों इन मुस्कानों के पीछे कितने दर्द छिपे,

यूं तो मैं आवारा भंवरे सा फ़िरता सा दिखता हूँ,
मेरे इन दुर्बल काँधों में  , हैं कितने भारी फ़र्ज़ छिपे,

मैं तुमसे खुलकर मिलता हूँ इसका यह अभिप्राय नहीं,
के भूल गया अपने प्रियतम को, जो अंतस में रहें छिपे,

पीर छिपाये दुनिया भर की हंस के बात तो करते हैं,
तुम क्या जानों कितने अश्कों, के हैं अन्दर क़र्ज़ छिपे,

मैं अपना अवसाद छिपाने को सामजिक बनता हूँ,
वरना बैरागी बनकर मैं हूँ दुनिया से रहा छिपे,

ये जग बस इक खेल मदारी, रोज़ तमाशे, स्वांग नए,
भीतर द्रष्टि, बाहर आँखें, प्रकट है माया , सत्य छिपे,

तुम मुझको इक हाड़-चाम का पुतला सिरफ़ समझते हो,
कुछ अभिशप्त फ़रिश्ते अन्दर रहते हैं “संजीव” छिपे .........संजीव मिश्रा

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

तेरे नाम करता हूँ

तुम्हारी भावनाओं की मैं कुछ यूं क़द्र करता हूँ,
तुम्हारे साथ करवा चौथ का व्रत मैं भी रखता हूँ,

नहीं तुम ये समझ लेना सिरफ तुमको मुहब्बत है,
दिखा मैं दिल नहीं सकता के कितना प्यार करता हूँ,

ज़रुरत क्या मुझे किस चीज़ की, जब सामने तुम हो,
तुम्हीं पर बस शुरू, तुम पर ख़तम, सब काम करता हूँ,

पिलाऊँ शाम को जब पानी मैं, मुझको पिलाना तुम,
समापन इस तरह इस व्रत का मैं इस शाम करता हूँ,

मैं तेरा हूँ,  इसी बस बात पर है फ़ख्र इक मुझको,
तू मेरी है मैं इस  सौभाग्य का सम्मान करता हूँ,

तू मेरे साथ खुश  रहती है मेरी तंगहाली  में,
शिकायत तू कभी कुछ कर, बड़ा अरमान  करता हूँ,

हूँ मुफ़लिस, पैसे कुछ कम हैं, मगर दिल का मैं राजा हूँ,
मैं रानी साहिबा को सर झुका परणाम करता हूँ,

तेरे “संजीव” का तुझको यही तोहफ़ा है छोटा सा,
मेरी अर्धांगिनी ख़ुद को मैं तेरे नाम करता हूँ....... संजीव मिश्रा

dedicated to my Dear Wife... :)

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

साया था....



आज फिर दिन है वही, के दुनिया में जब मैं आया था.
यूं  ही   घुट   घुट के जिये  जाने की सज़ा पाया था,

रहूँगा   ज़िन्दा   मगर,    ज़िन्दगी   को   तरसुंगा,
साथ   अपने   मैं,   ख़ुदा   की   ये  रज़ा लाया था,

ऐसे     कुछ    बीती    है   अब तलक उमर ये मेरी,
ज्यों   कोई    मुझको   मिटाने   की क़सम खाया था,

जो   भी   चाहा,   वो  ही खोया था , खेल था कैसा ,
जो   किया   मैंने,  कहीं-कुछ   भी, वो सब ज़ाया था,

मैंने   चाहा   कि  जियूं   मैं   भी   सभी  की तरहा,
करूँ   तो    क्या  के    इक   वक़्त  बुरा  छाया था,

तेरा   “संजीव”   कभी,  पा   सका   न कुछ भी कहीं ,
मेरी  तद्वीरों    पे,   नाक़ामियों   का    साया   था .