जीवन की पीड़ाओं को शब्दों में उंडेलने का प्रयास करता, प्रेम-मिलन,विरह,दुख, भाग्य आदि विभिन्न भावनाओं को शब्द देता एक कविता-गीत-ग़ज़ल शायरी का ब्लॉग। ज़िन्दगी की सज़ा काटने में आयीं दुश्वारियों को शायरी की ज़ुबान देने की एक कोशिश।
शुक्रवार, 26 जुलाई 2013
वो “शाम” सुहानी है......
मंगलवार, 26 मार्च 2013
होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में .
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013
फिर तुम यूं आये जीवन में ..........
तुम्हारे लिए लिखी एक अधूरी रचना जो जीवन के नियमित- दैनिक झंझटों के चलते कभी पूरी न हो पाई .
आज कथित प्रणय दिवस के अवसर पर तुम्हीं को समर्पित।
गुण दैवीय , रूप अलौकिक ,
वाणी वीणा की झंकार,
सुन्दर से - सुन्दरतम उपहार ,
क्यों न तुम पर आये प्यार।
मणिक जटित इक हिरण्य पात्र में,
ज्यों अमृत मदिरा के संग,
जीवनदायी भी- मादक भी,
शीतल भी लेकिन दाहक भी,
रोम-रोम रस का संचार।
मैं विश्वास करूं तो कैसे,
भाग्य बदलते हैं कब ऐसे,
जो स्वप्न कभी देखा ही न था ,
वो पूरा हो पाया कैसे,
करता हर पल बस यही विचार।
साथ तुम्हारा -मेरा ऐसे ,
ज्यों स्मित के साथ रुदन , या
अंधियारे के साथ किरण ,या
इक रेतीली प्रतिमा के
गले पडा हीरों का हार।
चहुँ ओर तम ही दिखता था,
सपना भी धुंधला दिखता था,
लक्ष्य दूर की बात रही,
मुझको तो पथ भी न दिखता था
थी नैय्या पतवार रहित और
उस पर भी थी बीच धार,
फिर तुम यूं आये जीवन में, ज्यों
समूह हँस, इक निर्जन वन में,
आ जाएँ करने विहार,
या कोई निर्धन निज आँगन,
पा जाए रत्नों के भंडार।
क्यों न तुम पर आये प्यार।
शनिवार, 17 जुलाई 2010
जिंदगी है प्याला
उस ख़ाली पर भरा हर , प्याला बजाता ताली ,
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
दुर्योग
चित्त में अनगिनत अनचाहे विचारों की तरह ,
दुक्ख जीवन में अनियंत्रित हो चले आते हैं ,
सुख हो गया दुर्लभ है समाधी की तरह ,
यत्न करते हैं बहुत ध्यान हम लगाते हैं ।
यम्-नियम ढल गए जीवन में बड़ी सरलता से,
पर सुख के आसन ने कभी स्वीकार न किया हमको ,
ठंडी आहों से हुआ ख़ुद ही अयाम प्राणों का ,
इस तरह उपकृत उदासियों ने कुछ किया हमको ।
विरक्तियाँ कुछ इस तरहा से मेरे काम आयीं ,
प्रती अहार को कुछ श्रम न मुझे करना पडा ,
अ-सफलताओं ने निराशाएं सतत दीं ऐसे ,
धारणा के भी लिए परयास न कुछ करना पडा ।
धारणा निराशा की कुछ इतनी प्रगाढ़ होती गयी,
ध्यान में चिर शोक के कब बदल गयी , पता ही न चला,
क्षिप्त पहले से था, विक्षिप्त हो गया कब मैं,
सम्भलना था कहाँ मुझको ये पता ही न चला।
अब तो लगता है समाधी बची चिर निद्रा की,
सुख का आसन भी तुझे 'संजीव' तभी मिल पायेगा,
ये जो छः अंगों का इक दुर्योग हुआ जीवन भर,
पूरा होगा ये तभी इन दो से जो मिल पायेगा ।