मैं हूँ इंसान इक नाचीज़ और अदना सा ,
मैं हूँ इक शख्सियत कमज़ोर और कमतर सी ,
एक तस्वीर हूँ बेरंग , एक गुल बे-बू ,
जो भी है कुफ्र खुदा का है , सहे जाते हैं ।
कोई भी फ़न नहीं मुझमें जिसे मैं बेच सकूं ,
तमाम दुनिया में मेरा तो कुछ भी मोल नहीं ,
नहीं है मेल ज़रा सा मेरा और दुनिया का ,
एक बेमेल सी संगत ये किए जाते हैं ।
हमसे उम्मीद लोग करते हैं शाद रहने की ,
पूछते हैं वज़ह हमसे उदास रहने की ,
वो हैं मासूम और नादाँ उन्हें ख़बर है क्या ,
जाम नाकामी के ऐसे ही पिए जाते हैं ।
रोज़ ज़िल्लत के यहाँ घूँट पीने पड़ते हैं ,
रोज़ सौ बार यहाँ किश्तों में मरना पड़ता है ,
रोज़ एक हिस्सा खुदी का फ़ना हो जाता है ,
रोज़ इस ज़ीस्त का हम सोग किए जाते हैं ।
रोयां - रोयां ये पूछता है तू क्यों ज़िंदा है ,
रगों में बहता हुआ लोहू तलक शर्मिंदा है ,
लगती है दिल की हरेक धड़कन भी अब तो गाली सी ,
बद - दुआ जैसी हरेक साँस लिए जाते हैं ।
जीवन की पीड़ाओं को शब्दों में उंडेलने का प्रयास करता, प्रेम-मिलन,विरह,दुख, भाग्य आदि विभिन्न भावनाओं को शब्द देता एक कविता-गीत-ग़ज़ल शायरी का ब्लॉग। ज़िन्दगी की सज़ा काटने में आयीं दुश्वारियों को शायरी की ज़ुबान देने की एक कोशिश।
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
सोमवार, 29 दिसंबर 2008
क़ैदी सा , जिए जाते हैं ........१
सब यहाँ कैसे खिलखिलाते हैं ,
कैसे जी भर तबस्सुम यहाँ लुटाते हैं ,
देख न ले कहीं तक़दीर हमको हँसते हुए ,
अपने होठों की मुस्कुराहट भी हम छुपाते हैं ।
कुछ को दुनिया है ये मैदाने-खेल की तरहा ,
और कुछ को है ये ऐशो-आराम की जगहा ,
आए हैं कुछ यहाँ बा - इज्ज़त एक न्यौते पर ,
हमारे जैसे तो क़ैदी से लाये जाते हैं ।
हमको हक़ है नहीं दिया गया कुछ जीने का ,
हमको है दी गयी सज़ा ये ज़िंदा रहने की ,
हमको न दी गयी इजाज़त है कुछ भी कहने की ,
क़ैद में हैं हम , क़ैदी सा , जिए जाते हैं ।
कैसे जी भर तबस्सुम यहाँ लुटाते हैं ,
देख न ले कहीं तक़दीर हमको हँसते हुए ,
अपने होठों की मुस्कुराहट भी हम छुपाते हैं ।
कुछ को दुनिया है ये मैदाने-खेल की तरहा ,
और कुछ को है ये ऐशो-आराम की जगहा ,
आए हैं कुछ यहाँ बा - इज्ज़त एक न्यौते पर ,
हमारे जैसे तो क़ैदी से लाये जाते हैं ।
हमको हक़ है नहीं दिया गया कुछ जीने का ,
हमको है दी गयी सज़ा ये ज़िंदा रहने की ,
हमको न दी गयी इजाज़त है कुछ भी कहने की ,
क़ैद में हैं हम , क़ैदी सा , जिए जाते हैं ।
मंगलवार, 16 दिसंबर 2008
कुछ रेत जैसी खुशियाँ .........भाग २
तुमको भला ख़बर क्या ,
जो ज़िन्दगी जीता हूँ ,
हैं धड़कनें शर्मातीं ,
साँसें लगीं लजाने ।
मेरी ज़िन्दगी बेमानी ,
मेरा वज़ूद है बेमतलब ,
मुझे ज़मीन ने दुत्कारा ,
ठुकराया आस्मां ने ।
मुझमें न कुछ है बाक़ी ,
जो कुछ है क़लम में है ,
ज़िंदा रखे हूँ ख़ुद को ,
मैं लिखने के बहाने ।
मावस की रात जैसी
है ज़िन्दगी बिताई ,
हैं अंधेरे इतने देखे ,
उजाले लगे डराने ।
मेरी क़ब्र पर भी कोई ,
न चिराग़ तुम जलाना ,
कुछ बुझी हुई शमाएँ ,
रखना मेरे सिरहाने ।
मैं नहीं निराशावादी ,
मुझे ऐसा न समझना ,
बस वो ही दे रहा हूँ ,
जो दिया मुझे जहाँ ने ।
ऐसा ही नहीं था मैं ,
हँसता था मैं , गाता भी ,
क़िस्मत को रास आए न
" संजीव " के तराने ।
जो ज़िन्दगी जीता हूँ ,
हैं धड़कनें शर्मातीं ,
साँसें लगीं लजाने ।
मेरी ज़िन्दगी बेमानी ,
मेरा वज़ूद है बेमतलब ,
मुझे ज़मीन ने दुत्कारा ,
ठुकराया आस्मां ने ।
मुझमें न कुछ है बाक़ी ,
जो कुछ है क़लम में है ,
ज़िंदा रखे हूँ ख़ुद को ,
मैं लिखने के बहाने ।
मावस की रात जैसी
है ज़िन्दगी बिताई ,
हैं अंधेरे इतने देखे ,
उजाले लगे डराने ।
मेरी क़ब्र पर भी कोई ,
न चिराग़ तुम जलाना ,
कुछ बुझी हुई शमाएँ ,
रखना मेरे सिरहाने ।
मैं नहीं निराशावादी ,
मुझे ऐसा न समझना ,
बस वो ही दे रहा हूँ ,
जो दिया मुझे जहाँ ने ।
ऐसा ही नहीं था मैं ,
हँसता था मैं , गाता भी ,
क़िस्मत को रास आए न
" संजीव " के तराने ।
शनिवार, 13 दिसंबर 2008
कुछ रेत जैसी खुशियाँ ..........
दोज़ख़ हो देखनी ग़र ,
तो मुझको देख ले तू ,
इक ज़िन्दा मिसाल हूँ मैं ,
तेरे सामने ज़माने ।
कुछ रेत जैसी खुशियाँ
हैं बस तेरी मुट्ठी में ,
मैंने दिल में छुपा रखे हैं ,
ग़म के कई ख़जाने ।
क्यूँ वक़्त ज़ाया करता
है दुनिया के तरानों में ,
फ़ुर्सत से आ किसी दिन ,
और सुन मेरे फ़साने ।
मैं याद करता आया ,
ता - उम्र जिस ख़ुदा को ,
वो ख़ुदा कहाँ छुपा है
ये तो ख़ुदा ही जाने ।
सुनता है वो सभी की ,
कुछ देर भले हो जाए ,
दुनिया ये मानती हो ,
“संजीव ” तो न माने ।
तो मुझको देख ले तू ,
इक ज़िन्दा मिसाल हूँ मैं ,
तेरे सामने ज़माने ।
कुछ रेत जैसी खुशियाँ
हैं बस तेरी मुट्ठी में ,
मैंने दिल में छुपा रखे हैं ,
ग़म के कई ख़जाने ।
क्यूँ वक़्त ज़ाया करता
है दुनिया के तरानों में ,
फ़ुर्सत से आ किसी दिन ,
और सुन मेरे फ़साने ।
मैं याद करता आया ,
ता - उम्र जिस ख़ुदा को ,
वो ख़ुदा कहाँ छुपा है
ये तो ख़ुदा ही जाने ।
सुनता है वो सभी की ,
कुछ देर भले हो जाए ,
दुनिया ये मानती हो ,
“संजीव ” तो न माने ।
शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008
ज़िन्दगी है प्याला ..............भाग ३
प्याले बनाए बिन - गिन ,
मय नाप कर बनायी ,
कहीं इतनी , कि छलक जाए ,
कहीं गंध भी न आयी ,
भरे ज़्यादतरमें आंसू ,
कुछ में ही है शराब ।
प्याला न तोड़ सकते ,
उम्मीद अभी बाक़ी है ,
इक दिन तो पिलाएगा वो ,
आख़िर को वो साकी है ,
प्याला दिया तो उसका -
है फ़र्ज़ , दे शराब ।
पर हो भरा या खाली ,
प्याला तो टूटना है ,
साकी को एक दिन तो ,
सब से ही रूठना है ,
उस दिन न कुछ बचेगा ,
ना प्याला ना शराब ।
तरसा हूँ मैं इतना , के
अब प्यास खो गयी है ,
यूँ ही तड़पने की अब
आदत सी हो गयी है ,
सब लगता है मुझको झूठा ,
क्या प्याला क्या शराब ।
ज़िन्दगी है प्याला ,
तक़दीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो
उतना ही क़ामयाब ।
मय नाप कर बनायी ,
कहीं इतनी , कि छलक जाए ,
कहीं गंध भी न आयी ,
भरे ज़्यादतरमें आंसू ,
कुछ में ही है शराब ।
प्याला न तोड़ सकते ,
उम्मीद अभी बाक़ी है ,
इक दिन तो पिलाएगा वो ,
आख़िर को वो साकी है ,
प्याला दिया तो उसका -
है फ़र्ज़ , दे शराब ।
पर हो भरा या खाली ,
प्याला तो टूटना है ,
साकी को एक दिन तो ,
सब से ही रूठना है ,
उस दिन न कुछ बचेगा ,
ना प्याला ना शराब ।
तरसा हूँ मैं इतना , के
अब प्यास खो गयी है ,
यूँ ही तड़पने की अब
आदत सी हो गयी है ,
सब लगता है मुझको झूठा ,
क्या प्याला क्या शराब ।
ज़िन्दगी है प्याला ,
तक़दीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो
उतना ही क़ामयाब ।
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