आती नहीं है नींद अब रातों में क्या करें,
उलझे हैं जिंदगी तिरी बातों में क्या करें,
हाथ से मुंह तक की दूरी बढ़ती ही गयी,
घटती गयी जो थी रक़म खातों में क्या करें,
मेहनत की उँगलियों में बनीं ठेंठ तो मगर,
क़िस्मत की ही रेखा नहीं हाथों में क्या करें,
नाक़ामयाबीयों की नज़र कोशिशों पे थी,
सिमटी उमर दो लफ्ज़ शह-मातों में क्या करें,
हसरत तो थी "संजीव" को, कुछ कर दिखायेंगे,
दिखते हैं वो भी हारकर जातों में क्या करें .
संजीव मिश्रा