शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

जीवन कुछ ऐसे है बीता......



जीवन कुछ ऐसे है बीता......

आँख के प्याले छल-छल छलके,
हृदय का घट था रीता-रीता,
जीवन कुछ ऐसे है बीता......

रुत उमंग की कभी न आयी,
नहीं ख़ुशी की  कोयल बोली,
चित अवसाद का, जनवासा था,
विदा हुई, आशा की डोली,

जैसे नगर में, सोने के इक,
हो रोयी, फिर कोई सीता... 

जीवन कुछ ऐसे है बीता......

जीवन ज्यों होली का अवसर ,
पर मैं रंग से रहा अछूता ,
जहाँ भी देखा, रंग ही रंग थे,
कैसा अनुपम दृश्य अनूठा,

सब थे शिर-पद रंग में डूबे,
मेरे कुरते, कोई न छींटा... 

जीवन कुछ ऐसे है बीता......

जैसे दीवाली पे जगमग,
महल-अटारी, कुटिया सारी,
पर इक शोकाकुल घर में हो,
गयी न बत्ती, मोम भी जारी,

सुख की भरी सभा में जैसे,
दुख हो दुर्योधन बन जीता...... 

जीवन कुछ ऐसे है बीता......

दुनिया थी संपति का मेला,
सुख-वैभव की चहुँ दिस झांकी,
सबकी इच्छाएं  वरदानित,
सबको था हासिल, इक साकी,

पर “संजीव” को प्राप्य, न था कुछ,
सिवा सांस के कोई सुभीता...... 

जीवन कुछ ऐसे है बीता......
 
आँख के प्याले छल-छल छलके,
हृदय का घट था रीता-रीता,

जीवन कुछ ऐसे है बीता......          ....संजीव मिश्रा

शनिवार, 24 जनवरी 2015

सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......



सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
तो फ़िर  ये कुहासा क्यूं छंटता नहीं है,
ये उलझन का बादल क्यों हटता नहीं है,
समस्याओं की धुंध मिटती नहीं क्यूं,
क्यूं मन पर उदासी का रंग आ गया है.....
सुना है के बाहर बसंत आ गया है..........

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
अभावों की, पर, बर्फ़ अब भी जमी है,
समाधान की धूप अब भी नहीं है,
हताशा का था राज इकछत्र, अब-
एक स्थायी नैराश्य संग आ गया है...
सुना है के बाहर बसंत आ गया है........

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
मग़र रुत कठिन क्यों है जीवन में अब तक,
कटेगी उमर ये भला यूं ही कब तक,
कि कब तक यूं शापित-से जीते रहेंगे,
के “संजीव” भी अब तो तंग आ गया है......
सुना है के बाहर बसंत आ गया है.....

सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

ये ज़िंदगी............

पूस की इक रात सी ये जिंदगी,
सर्द झंझावात सी ये ज़िंदगी,

चैन की इक सांस भी न दे सके,
दुश्मन की इक सौग़ात सी ये ज़िन्दगी,

मांग में सुख का न है सिन्दूर भी,
खोये हुए अहिवात सी ये ज़िंदगी,

सुविधा-सुकूं-सम्रद्धि के ज़ेवर नहीं,
इक लुट चुकी बारात सी ये ज़िंदगी,

वो ही हो न पाया जो ये  चाहती,
मन में दबी इक बात सी ये ज़िंदगी,

कर्म की तलवार पर भारी पड़ी,
दैव के आघात  सी ये ज़िंदगी,

उम्र भर क़ाबू में न आ पाए जो,
“संजीव” के हालात सी ये ज़िंदगी ............संजीव मिश्रा

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

मेरे घर ........

मेरे घर ........
आसमान से ज़्याद उजाला मेरे घर,
इक दूना रौशन चाँद खिला है, मेरे घर,

वो उधर बादलों में सकुचाया-सिमटा सा,
ये इधर है झेंपा-झेंपा सा कुछ, मेरे घर,

जूही के इन गजरों की शान बढ़ाता सा,
ये फिरे गुलाबों सा महका कुछ, मेरे घर,

वो रात चमक कर दिन में फ़िर खो जाएगा,
ये हरदम मेरे साथ रहेगा, मेरे घर,

वो दूर पहुँच से सदा सभी की, तनहा-सा,
ये सदा मेरी बांहों में होगा, मेरे घर,

सोने-चांदी की चमक भले ही कुछ कम हो,
है शुक्र, प्यार की दौलत है कुछ, मेरे घर,

जज़्बात-मुहब्बत की ख़ुशबू फैले हरदम,
न दिलों में दूरी कभी बने अब, मेरे घर,

ग़र मुझसे कोई भूल हो तो लड़ लेना तुम,
पर छोड़ मुझे न जाना फ़िर तुम, मेरे घर,

इस करवा की ये चौथ, सदा संग-संग बीते,
हर दिन बीते उस संग मेरा, अब , मेरे घर,

जो कुछ है मेरे पास, करम उस ही का है,
“संजीव” उसी से ख़ुशी सभी अब, मेरे घर ......... संजीव मिश्रा