जीवन कुछ ऐसे है बीता......
आँख के प्याले छल-छल छलके,
हृदय का घट था रीता-रीता,
जीवन कुछ ऐसे है बीता......
रुत उमंग की कभी न आयी,
नहीं ख़ुशी की कोयल बोली,
चित अवसाद का, जनवासा था,
विदा हुई, आशा की डोली,
जैसे नगर में, सोने के इक,
हो रोयी, फिर कोई सीता...
जीवन कुछ ऐसे है बीता......
जीवन ज्यों होली का अवसर ,
पर मैं रंग से रहा अछूता ,
जहाँ भी देखा, रंग ही रंग थे,
कैसा अनुपम दृश्य अनूठा,
सब थे शिर-पद रंग में डूबे,
मेरे कुरते, कोई न छींटा...
जीवन कुछ ऐसे है बीता......
जैसे दीवाली पे जगमग,
महल-अटारी, कुटिया सारी,
पर इक शोकाकुल घर में हो,
गयी न बत्ती, मोम भी जारी,
सुख की भरी सभा में जैसे,
दुख हो दुर्योधन बन जीता......
जीवन कुछ ऐसे है बीता......
दुनिया थी संपति का मेला,
सुख-वैभव की चहुँ दिस झांकी,
सबकी इच्छाएं वरदानित,
सबको था हासिल, इक साकी,
पर “संजीव” को प्राप्य, न था कुछ,
सिवा सांस के कोई सुभीता......
जीवन कुछ ऐसे है बीता......
आँख के प्याले छल-छल छलके,
हृदय का घट था रीता-रीता,
जीवन कुछ ऐसे है बीता...... ....संजीव
मिश्रा
अच्छी रचना
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