मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में .

दीदी कह, चलती बस में, दुष्कर्म भाई के वेश में ,
होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में . 

कुत्सित आवेगों की पिचकारी , कु-वासनाओं का रंग लिये ,
देह-पिपासु घूम रहे चहुँ ओर काम की भंग पिये ,
रज़िया-सोफ़ी - राधा -प्रीतो , सब जीती हैं क्लेश में,
होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में . 

कुछ मिलतीं अधमरी सड़क पर, कुछ खेतों में मरीं मिलीँ ,
बच्ची-युवती -गर्भ-वती-विक्षिप्त ,सभी इस आग जलीं ,
है ,आधी आबादी खतरे में, ऐसे इस परिवेश में,
होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में . 

जब बेटी बाहर जाए तो मन्नत ना मांगें माएं ,
पिता  का दिल न लरजे और ना ही भाई भेजे जाएँ,

जब मैली नज़रें किसी की बहनों पर उठने से घबरायें ,
जब हाथ किसी युवती की चुनरी तक जाने में थर्राएँ,

ना हो जब तक ऐसा सु-शासन,हर गाँव-जिले-प्रदेश में,
होली कहाँ मुबारक है, इस हैवानों के देश में .

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

फिर तुम यूं आये जीवन में ..........

फिर तुम यूं आये जीवन में ..........

तुम्हारे  लिए लिखी एक अधूरी रचना जो जीवन के  नियमित- दैनिक झंझटों के चलते कभी पूरी न हो पाई .
आज कथित प्रणय दिवस के अवसर पर तुम्हीं को समर्पित।

गुण दैवीय , रूप अलौकिक ,
वाणी वीणा की झंकार,
सुन्दर से - सुन्दरतम उपहार ,
क्यों न तुम पर आये प्यार।

मणिक जटित इक हिरण्य पात्र में,
ज्यों अमृत मदिरा के संग,
जीवनदायी भी- मादक  भी,
शीतल भी लेकिन दाहक भी,

रोम-रोम रस का संचार।

मैं विश्वास करूं  तो कैसे,
भाग्य बदलते हैं कब ऐसे,
जो स्वप्न कभी देखा ही न था ,

वो पूरा हो पाया कैसे,

करता  हर पल बस  यही  विचार।

साथ तुम्हारा -मेरा ऐसे ,
ज्यों स्मित के साथ रुदन , या 
अंधियारे  के साथ किरण ,या
इक रेतीली प्रतिमा के

गले पडा हीरों का हार।

चहुँ ओर तम ही दिखता था,
सपना भी धुंधला दिखता था,
लक्ष्य दूर की बात रही,
मुझको तो पथ भी न दिखता था

थी नैय्या पतवार रहित और
उस पर भी थी बीच धार,

फिर  तुम यूं आये जीवन में, ज्यों
समूह हँस,  इक निर्जन वन में,
आ जाएँ करने  विहार,
या कोई निर्धन निज आँगन,
 पा जाए  रत्नों  के भंडार।

क्यों न तुम पर आये प्यार। 




शनिवार, 17 जुलाई 2010

जिंदगी है प्याला

जिंदगी है प्याला ,तक़दीर है शराब ,
जिसे जितनी मिल गयी , वो उतना ही कामयाब ।


 
जिसका भरा है प्याला ,इक वो ही है निराला ,
उसने भुलाया सबसे ,पहले पिलाने वाला ,
वो समझा मैंने प्याले , में ख़ुद भरी शराब । जिसे जितनी मिल गयी वो ......।

 
जिसका है प्याला ख़ाली ,दर - दर का वो सवाली ,
उस ख़ाली पर भरा हर , प्याला बजाता ताली ,
कहते ख़राब प्याला , नापे बिना शराब । जिसे जितनी मिल गयी वो ......।

 
प्याला न ख़राब कोई, न कोई भला प्याला ,
इक खेल खेलता है ,सबसे पिलाने वाला ,
इक में लबालब, इक में इक बूँद न शराब । जिसे जितनी मिल गयी वो ......।

 
कोई है नशे में सोता ,कोई जागता है भूखा ,
कहीं मखमली हैं बिस्तर ,कहीं कौर भी न रूखा ,
क्यों प्याला दे दिया जब, देनी न थी शराब। जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


हम भी तरस रहे हैं ,पाने को चंद बूँदें ,
हम मांगकर थके , वो बैठा है कान मूंदे ,
शायद हमारा प्याला ना - क़ाबिले शराब । जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


प्याले बनाए बिन - गिन , मय नाप कर बनायी ,
कहीं इतनी , कि छलक जाए , कहीं गंध भी न आयी ,
भरे ज़्यादतर में आंसू , कुछ में ही है शराब । जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


प्याला न तोड़ सकते , उम्मीद है कुछ बाक़ी ,
इक दिन तो पिलाएगा वो , आख़िर को है वो साकी ,
प्याला दिया तो उसका - है फ़र्ज़ , दे शराब ।जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


पर हो भरा या ख़ाली , प्याला तो टूटना है ,
साकी को एक दिन तो , सब से ही रूठना है ,
उस दिन न कुछ बचेगा , ना प्याला ; ना शराब ।जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


तरसा हूँ मैं इतना , के अब प्यास खो गयी है ,
यूँ ही तड़पने की अब आदत सी हो गयी है ,
सब लगता है मुझको झूठा, क्या प्याला क्या शराब।     जिसे जितनी मिल गयी वो ......।


 
ज़िन्दगी है प्याला , तक़दीर है शराब,
जिसे जितनी मिल गयी , वो उतना ही क़ामयाब ।



गुरुवार, 10 सितंबर 2009

दुर्योग


चित्त में अनगिनत अनचाहे विचारों की तरह ,
दुक्ख जीवन में अनियंत्रित हो चले आते हैं ,
सुख हो गया दुर्लभ है समाधी की तरह ,
यत्न करते हैं बहुत ध्यान हम लगाते हैं ।


यम्-नियम ढल गए जीवन में बड़ी सरलता से,
पर सुख के आसन ने कभी स्वीकार न किया हमको ,
ठंडी आहों से हुआ ख़ुद ही अयाम प्राणों का ,
इस तरह उपकृत उदासियों ने कुछ किया हमको ।


विरक्तियाँ कुछ इस तरहा से मेरे काम आयीं ,
प्रती अहार को कुछ श्रम न मुझे करना पडा ,
अ-सफलताओं ने निराशाएं सतत दीं ऐसे ,
धारणा के भी लिए परयास न कुछ करना पडा ।


धारणा निराशा की कुछ इतनी प्रगाढ़ होती गयी,
ध्यान में चिर शोक के कब बदल गयी , पता ही न चला,
क्षिप्त पहले से था, विक्षिप्त हो गया कब मैं,
सम्भलना था कहाँ मुझको ये पता ही न चला।


अब तो लगता है समाधी बची चिर निद्रा की,
सुख का आसन भी तुझे 'संजीव' तभी मिल पायेगा,
ये जो छः अंगों का इक दुर्योग हुआ जीवन भर,
पूरा होगा ये तभी इन दो से जो मिल पायेगा ।

मंगलवार, 10 मार्च 2009

होली है।

रंगों की एक गठरी ,किसने यहाँ खोली है ,
लगता है इस बरस भी, फ़िर आ गयी होली है ।


हर शख्स खिला सा है , हर ज़र्रा है महका सा ,
हर ग़म जला दिया है , हर फ़िक्र ज्यों धो ली है ।

होली नहीं ये तेरी , न रंग ये तेरे हैं ।
कानों में मेरे किसने , फ़िर बात ये बोली है ।

सबकी तरह से मैं भी, क्यों आज ख़ुश नहीं हूँ ,
क्यूँ ख्वामख्वाह मैंने, फ़िर आँख भिगो ली है ।

क्यूँ सोग किए जाता ,हूँ , तक़दीर का मैं अपनी ,
यहाँ बदकिस्मती भी क़िस्मत, की एक ठिठोली है ।

हमने तो है ये पाया , ये जिंदगी सिरिफ़ इक ,
उम्मीद - नाउमीदी, की आँख मिचोली है ।

इस बरस नयी पुडिया ,मजबूरियों के रंग की ,
लोहू में ख्वाहिशों के , हालात ने घोली है ।

मातम सा है इक अन्दर , कुछ हसरतें गयीं मर ,
अरमां सिसक रहे हैं , हर आरज़ू रो ली है ।

कोई संदेस घर से, आया नहीं होली पर ,
लगता है दिल में सबने, इक गैरियत बो ली है ।

यूं मुंह सा चिढाता है, हर इक त्यौहार आकर ,
ज्यूँ ग़म की घुड़चढी है , आशाओं की डोली है ।


'संजीव ' आज़माइश , है ज़ब्त की ये तेरे ,
थी गयी सता, दिवाली , अब आयी ये होली है ।

परिशिष्ट :

पिचकारी दूरियों की , और रंग है विरह का ,
गुलाल सब्र का है , कुछ ऎसी ये होली है ।


रंगीन किया जाना, बेरंग को , है मुमकिन ,
बदरंग जिंदगी में, क्यूँ आए ये होली है ।

मैं राह देखता हूँ , बस ऎसी इक होली की ,
जब झूमकर नशे में ,कह पाऊँ कि, "होली है " ।


माहौल में खुशी के , ये क्या मैं कह गया सब ,
फ़िर भी मुआफ करना , आख़िर को तो होली है ।

नहीं जानता "बहर" क्या ,कहते हैं "रुक्न" किसको ,
इक तड़प थी इस दिल में , लफ़्जों में पिरो ली है ।