शनिवार, 24 जनवरी 2015

सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......



सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
तो फ़िर  ये कुहासा क्यूं छंटता नहीं है,
ये उलझन का बादल क्यों हटता नहीं है,
समस्याओं की धुंध मिटती नहीं क्यूं,
क्यूं मन पर उदासी का रंग आ गया है.....
सुना है के बाहर बसंत आ गया है..........

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
अभावों की, पर, बर्फ़ अब भी जमी है,
समाधान की धूप अब भी नहीं है,
हताशा का था राज इकछत्र, अब-
एक स्थायी नैराश्य संग आ गया है...
सुना है के बाहर बसंत आ गया है........

सुना है के बाहर बसंत आ गया है,
मग़र रुत कठिन क्यों है जीवन में अब तक,
कटेगी उमर ये भला यूं ही कब तक,
कि कब तक यूं शापित-से जीते रहेंगे,
के “संजीव” भी अब तो तंग आ गया है......
सुना है के बाहर बसंत आ गया है.....

सुना है के बाहर बसंत आ गया है.......

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

ये ज़िंदगी............

पूस की इक रात सी ये जिंदगी,
सर्द झंझावात सी ये ज़िंदगी,

चैन की इक सांस भी न दे सके,
दुश्मन की इक सौग़ात सी ये ज़िन्दगी,

मांग में सुख का न है सिन्दूर भी,
खोये हुए अहिवात सी ये ज़िंदगी,

सुविधा-सुकूं-सम्रद्धि के ज़ेवर नहीं,
इक लुट चुकी बारात सी ये ज़िंदगी,

वो ही हो न पाया जो ये  चाहती,
मन में दबी इक बात सी ये ज़िंदगी,

कर्म की तलवार पर भारी पड़ी,
दैव के आघात  सी ये ज़िंदगी,

उम्र भर क़ाबू में न आ पाए जो,
“संजीव” के हालात सी ये ज़िंदगी ............संजीव मिश्रा

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

मेरे घर ........

मेरे घर ........
आसमान से ज़्याद उजाला मेरे घर,
इक दूना रौशन चाँद खिला है, मेरे घर,

वो उधर बादलों में सकुचाया-सिमटा सा,
ये इधर है झेंपा-झेंपा सा कुछ, मेरे घर,

जूही के इन गजरों की शान बढ़ाता सा,
ये फिरे गुलाबों सा महका कुछ, मेरे घर,

वो रात चमक कर दिन में फ़िर खो जाएगा,
ये हरदम मेरे साथ रहेगा, मेरे घर,

वो दूर पहुँच से सदा सभी की, तनहा-सा,
ये सदा मेरी बांहों में होगा, मेरे घर,

सोने-चांदी की चमक भले ही कुछ कम हो,
है शुक्र, प्यार की दौलत है कुछ, मेरे घर,

जज़्बात-मुहब्बत की ख़ुशबू फैले हरदम,
न दिलों में दूरी कभी बने अब, मेरे घर,

ग़र मुझसे कोई भूल हो तो लड़ लेना तुम,
पर छोड़ मुझे न जाना फ़िर तुम, मेरे घर,

इस करवा की ये चौथ, सदा संग-संग बीते,
हर दिन बीते उस संग मेरा, अब , मेरे घर,

जो कुछ है मेरे पास, करम उस ही का है,
“संजीव” उसी से ख़ुशी सभी अब, मेरे घर ......... संजीव मिश्रा

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

जो सच है, कहता है..............



ग़ुलामी के क़िलों  में फ़िर मनेगा जश्ने-आज़ादी,
कोई इन अहमकों से पूछे कितनी-कैसी आज़ादी,

जिन्होंने अस्मिता लूटी है मिल, भारत की सदियों तक,
उन्हीं की ही दिवारें फ़िर सजेंगी, कैसी आज़ादी,

यहाँ परताप और चौहान को, पूछेगा न कोई,
मुग़लिया शान, शाने-मुल्क, है ये कैसी आज़ादी,

शिवाजी के क़िले से क्यूं नहीं, झंडा ये फहराते, 
ज़हन में है ग़ुलामी अब भी इनके, कैसी आज़ादी ,

उन्होंने बुद्ध की मूरत उड़ा दी, तोप से बेख़ौफ़,
तुम अब भी हो सहेजे लाल किल्ला,कैसी आज़ादी,

अयोध्या में मेरे श्री राम, अपने घर में बेघर हैं,
है होती ताज-महल की हिफाज़त,कैसी आज़ादी,

निशानी ज़ालिमों की, मुल्क की पहचान, आख़िर क्यों,
मकां मेरा है, तख्ती दुश्मनों की, कैसी आज़ादी,

ज़हन आज़ाद है संजीवका, जो सच है, कहता है,
जो डर से तुम सराहो न, तो सोचो, कैसी आजादी...........संजीव मिश्रा 

अहमक=मूर्ख, परताप=श्री राणा प्रताप, चौहान=श्री पृथ्वी राज चौहान, शाने-मुल्क=देश की शान, तख्ती= नेम प्लेट

शनिवार, 9 अगस्त 2014

फ़रिश्ता जल्द आये वो..........

दुआएं  भी  तुम्हारे जन्म दिन पर, दे नहीं पाया,
हजारों साल तुम जीओ, मैं कह तुमसे, नहीं पाया,

ये मुझ पर एक हैरत, और शरम का, एक मुद्दा है,
के कैसे ये मुक़द्दस दिन,  ज़हन में रह नहीं पाया,

क़यामत तक़  सलामत तुम रहो , मैं  आज कहता हूँ,
मेरे हमदम, वो कहने दो , जो उस दिन कह नहीं पाया,

तुम्हारे   ही   तबस्सुम  से, जहां रौशन रहे यूं ही,
रहें   वो   दूर   तुमसे,  जो  बलाएँ ले नहीं पाया,

ख़ुदा  तक़दीर लिक्खे फ़िर, तुम्हारी पूछ कर तुमसे,
न  अरमां  कुछ रहे ऐसा, जो पूरा हो नहीं पाया,

फ़रिश्ता जल्द आये वो, हो तुम तक़दीर में जिसकी,
मैं तो इस जन्म में,  ये ख़ुशनसीबी ला नहीं पाया,

तुम्हारी  अर्चना-पूजा में,  मन, मंदिर हुआ  पावन,
तेरे  “संजीव”  सा ये बह कभी, या  ढह नहीं पाया....

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

शायद .........




आज    कुछ दिल बुझा-बुझा सा है,
आज   मैं   फ़िर  उदास हूँ शायद,

आज   वो   दूर-दूर    लगते  हैं,
आज   मैं   ख़ुद के पास हूँ शायद,

उनकी महफ़िल   में आदमी अदना,
बस    अकेले   में ख़ास हूँ शायद,

एक      सपना हूँ अब अधूरा सा,
एक टूटी  सी   आस   हूँ शायद,

दूर  तक   रास्ते    ही  दिखते हैं,
कोई   मंज़िल  ही   नहीं है शायद,

जीना     शायद   इसी को कहते हैं,
ज़िन्दगी    यूं   ही होती है शायद,

मन में     तन्हाइयों  का मौसम है,
महफ़िलों    की गयी है रुत शायद,

ख़ुश हैं वो ही संजीवके दुःख से,
जिन्का   मैं  ग़मशिनास हूँ शायद ...........संजीव मिश्रा