शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

बहुत हैं................

अब भला फ़ुर्सत कहाँ , शेरों को सुखन को,
अब नून, तेल -आटे की फिक्रें ही बहुत हैं,

अब ज़ुल्फ़ की गिरहें हसीं, ख़्वाबों में भी नहीं ,
इस पैर में अब फ़र्ज़ की, ज़ंजीरें बहुत हैं,

वो याद भी आ जाएँ तो, है शुक्रिया उनका,
वो भूल हमें जाएँ, तो अहसान बहुत हैं,

मिलना नहीं होता है अब,उनसे,न क़लम से,
ख़ुद से भी जो मिल पायें, वो दो लम्हे बहुत हैं,

पहले "संजीव" कहते थे, हर दिन ग़ज़ल, मगर
दो-चार महीनों में अब, ये शेर बहुत हैं .............संजीव मिश्रा

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