सोमवार, 20 जनवरी 2014

इंतेज़ाम करता हूँ....


सर झुकाकर सलाम करता हूँ, उनको अपना पयाम करता हूँ,
जिनको पाना नहीं मुक़द्दर में, आज जां उनके नाम करता हूँ,

वो हैं मगरूर हुस्न पर अपने,
मैं हूँ मजबूर इस मुहब्बत से,
मुझ-से कितने हैं, उन सा कोई नहीं,
जलवों का उनके, मैं अहतराम करता हूँ...........

जीना उन बिन, गुनाह लगता है ,
ये जहां ख्वामख्वाह लगता है,
उसको पाने की जुस्तजू में ही,
अपनी सुबहों को शाम करता हूँ.............

ग़ैर का आगोश ही, उनको अज़ीज़ लगता है,
मेरा कुछ कहना भी, उनको अजीब लगता है,
अब तो शायद यही अपना नसीब लगता है,
दिल को समझा लूं यही, अब तो काम करता हूँ...........

न जाने कितने दिवाने, फ़ना हुए हैं यहाँ,
हसरतें कितनी यहाँ, दफ्न हुई हैं यूं ही,
वो न मिल पाये तो “संजीव” जियेगा कैसे,
खैर, इसका भी कुछ,अब इंतेज़ाम करता हूँ......संजीव मिश्रा

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