मंगलवार, 26 नवंबर 2013

चित्र उकेरा




चोली की बाजू  लाल, हरी बारीक़  किनारी,
तसवीर की  तेरी आज सुबह, फिर नज़र उतारी,

सौ बार चूम कर रात, लगा कर हृदय से सोया,
कल पूरे दिन रहा मैं बस यूं, खोया-खोया,

तनहाई में मुसकाऊँ , करूँ ख़ुद से मैं बातें,
तसवीर तेरी करती है मुझ पर, मीठी घातें,

गर्दन है थोड़ी झुकी दायें, अपलक मैं निहारूं,
हैं ह्रदय-प्राण तेरे ही, तुझ पर अब क्या  वारूँ,

है  बांयें कान का कुंडल छूता ग्रीवा ऐसे,
कोई हंन्स झुका कर चोंच हो अमृत पीता जैसे,

ये बड़े-बड़े दो नयन, पात्र-द्वै मदिरा-पूरित,
ये तीव्र-नुकीली भौंहें, दर्प सबका करें चूरित,

ये वाम-कर्ण के पीछे आते कुंतल काले,
और दायीं ओर के केश छिपाते यौवन प्याले,

ये लोहित-लाल कपोल हैं लगते सज्जित ऐसे,
कोई सद्य-विवाहित नवयुवती हो लज्जित जैसे,

ये होंठ रसभरे करके तिरछे मुसकाती हो,
इस दुर्बल रसिक हृदय को क्यों तुम तरसाती हो,

माथ की बिंदी, मांग का सेंदुर, लौंग नाक की प्यारी,
भले विवाहित हो तुम, पर मुझको तो लगो कुँआरी,

जिसके  रूप के इस वर्णन में लेखनी जाये हारी,
पायें वो  आलिंगन है कब ऎसी नियति हमारी,

संजीव भले असफ़ल दुनिया में, पर है सफ़ल चितेरा,
आज कल्पना में अपनी ये, उसने  चित्र उकेरा,

यदि समानता कहीं कोई जो, दे दिखलाई किसी से,
क्षमा-दान की विनय याचना है करबद्ध सभी से 
                                                        .............संजीव मिश्रा

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