गुरुवार, 28 नवंबर 2013

कैसे लगते हैं ......

ये सीप में काले मोती जैसे नयन तेरे,
क्यों मुझको मूक निमंत्रण देते लगते हैं,

ये तृषित अधर-रसभरे-कुंआरे-तुम-हारे,
हम दमित मदन पर खोये नियंत्रण लगते हैं,

ये घने केश तेरे , काजल से भी काले,
इस प्रणय-तृषित को प्रेम पयोधर लगते हैं,

तेरे आलिंगन में लोक सभी स्वः-जनः-तपः,
ये लौकिक वैभव क्षुद्र खिलौने लगते हैं,

अब कार्यालय में कहाँ ये मन लग पाता है,
सब कहते हैं, हम खोये-खोये लगते हैं,

जब चित्र ही उनका ये  इतना मनमोहक है,
 मैं सोचूँ के सचमुच वो कैसे लगते हैं,

बस तेरे रूप की उपमाएं सोचूँ हर पल,
अब तो हम भी कुछ, कवियों जैसे लगते हैं,

तुम साध्य, तुम्हीं हो लक्ष्य, तुम्हीं सिद्धि, तुम साधन,
इस जनम में हम, तुम-हारे साधक लगते हैं,

प्रिये, तुम क्या हो, तुम्हें बताया मैंने तुमको, अब,
तुम कहो तुम्हें “संजीव” जी कैसे लगते हैं    .........संजीव मिश्रा

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