शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

रहते हैं “संजीव” छिपे .........

भीतर भीतर जेठ दुपहरी बाहर मौसम सावन का,
तुम क्या जानों इन मुस्कानों के पीछे कितने दर्द छिपे,

यूं तो मैं आवारा भंवरे सा फ़िरता सा दिखता हूँ,
मेरे इन दुर्बल काँधों में  , हैं कितने भारी फ़र्ज़ छिपे,

मैं तुमसे खुलकर मिलता हूँ इसका यह अभिप्राय नहीं,
के भूल गया अपने प्रियतम को, जो अंतस में रहें छिपे,

पीर छिपाये दुनिया भर की हंस के बात तो करते हैं,
तुम क्या जानों कितने अश्कों, के हैं अन्दर क़र्ज़ छिपे,

मैं अपना अवसाद छिपाने को सामजिक बनता हूँ,
वरना बैरागी बनकर मैं हूँ दुनिया से रहा छिपे,

ये जग बस इक खेल मदारी, रोज़ तमाशे, स्वांग नए,
भीतर द्रष्टि, बाहर आँखें, प्रकट है माया , सत्य छिपे,

तुम मुझको इक हाड़-चाम का पुतला सिरफ़ समझते हो,
कुछ अभिशप्त फ़रिश्ते अन्दर रहते हैं “संजीव” छिपे .........संजीव मिश्रा

2 टिप्‍पणियां:

  1. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने..

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  2. बहुत खूब ... मन के एहसास का सुन्दर चित्रण ... इनको छुपाना आसान नहीं होता ...

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