मंगलवार, 3 सितंबर 2013

उसका पत्थर कहाँ पिघलता है...............



जब घटा आसमां पर छाती है , मेरी यादों से ग़म बरसता है,
जब हवा झूम-झूम चलती है , मेरे ज़ख्मों से खून  रिसता है।

दूर जब कोई गीत सुनता हूँ , एक उदासी सी चली आती है ,
चांदनी बादलों से छन-छन के , मुझमें इक आह सी जगाती है,
तारे सब मुझपे मुस्कुराते हैं , चाँद छुप-छुप के मुझपे हंसता है।

मुझमें क्या दर्द है जो पलता है , आज तक मैं समझ नहीं पाया,
जिसको कर याद कुछ सुकूं पाऊं ,मुझको वो ख्व़ाब  तक नहीं आया,
मेरा दामन है पकड़े मायूसी , ग़म मेरे साथ -साथ चलता है .


लोग ख़ुशियाँ  कहाँ से लाते हैं , ख़ुद से अक्सर सवाल करता हूँ,
सूनी आंखों से देखता रहकर , देर तक सोच में गुम रहता हूँ ,
जब , बांह बांहों में डाल राहों में , कोई जोड़ा हसीं निकलता है .

हमको  उम्मीद आसमां से थी, सितारे “संजीव” के  भी बदलेंगे
घिस के माथा ये उसकी चौखट पे, हम मुक़द्दर ये हक़ में कर लेंगे,
पर ,जिसको कहते हैं मन्दिरो-मस्जिद , उसका पत्थर कहाँ पिघलता है.

1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूब ... पर करना तो खुद ही होता है किस्मत बदलने के लिए ... पत्थर तो कभी भी नहीं पिघले ... भावमय रचना ...

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