गुरुवार, 26 सितंबर 2013

क़सम खाए हैं.....

जिये जाते हैं  बस, उनकी ख़ुशी की ख़ातिर,
के जो दुनिया में, बस मेरे ही लिए आये  हैं,

बहुत क़रीब हैं दिल के वो, मगर उनसे भी,
वो क्या जानें के हम, क्या-क्या रहे छिपाए हैं,

क्या-क्या चाहा था कि करूँगा मैं, वास्ते उनके,
करें तो  क्या के, इक मुक़द्दर ख़राब लाये है,

मेरी तदवीरों  के वो सारे किले तोड़ गयी,
लड़ के तकदीर से जो हमने कभी बनाए हैं,

कोई चाहे न सराहे “संजीव” हम फिर भी,
यूं ही ताउम्र लिखे जाने की क़सम खाए हैं.....

1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूब संजीव जी ... आपको सराहने वाले बहुत हैं ... यूं ही लिखते रहें ...

    जवाब देंहटाएं