मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

कैदी सा जिए जाते हैं ....... २

मैं हूँ इंसान इक नाचीज़ और अदना सा ,
मैं हूँ इक शख्सियत कमज़ोर और कमतर सी ,
एक तस्वीर हूँ बेरंग , एक गुल बे-बू ,
जो भी है कुफ्र खुदा का है , सहे जाते हैं ।


कोई भी फ़न नहीं मुझमें जिसे मैं बेच सकूं ,
तमाम दुनिया में मेरा तो कुछ भी मोल नहीं ,
नहीं है मेल ज़रा सा मेरा और दुनिया का ,
एक बेमेल सी संगत ये किए जाते हैं ।


हमसे उम्मीद लोग करते हैं शाद रहने की ,
पूछते हैं वज़ह हमसे उदास रहने की ,
वो हैं मासूम और नादाँ उन्हें ख़बर है क्या ,
जाम नाकामी के ऐसे ही पिए जाते हैं ।


रोज़ ज़िल्लत के यहाँ घूँट पीने पड़ते हैं ,
रोज़ सौ बार यहाँ किश्तों में मरना पड़ता है ,
रोज़ एक हिस्सा खुदी का फ़ना हो जाता है ,
रोज़ इस ज़ीस्त का हम सोग किए जाते हैं ।


रोयां - रोयां ये पूछता है तू क्यों ज़िंदा है ,
रगों में बहता हुआ लोहू तलक शर्मिंदा है ,
लगती है दिल की हरेक धड़कन भी अब तो गाली सी ,
बद - दुआ जैसी हरेक साँस लिए जाते हैं ।

1 टिप्पणी:

  1. आज के माहौल की मौजूदा स्थिति को कितना सही उतारा है,
    बहुत ही अच्छी रचना है.........

    जवाब देंहटाएं